दिल्ली सल्तनत (गुलाम सुल्तान,1206 ईस्वी से 1290 ईस्वी तक)

दिल्ली के सुल्तानों में आरंभिक शासक ममलूक थे। इन शासकों में सबसे पहला मोहम्मद गौरी का सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक था। मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ने भारत में रह कर अपना साम्राज्य स्थापित करने का निश्चय किया। गजनी के शासक ने कुतुबुद्दीन ऐबक के राज्य को अपने राज्य में मिला लेना चाहा पर उसको इसमें सफलता नहीं मिली। जब कुतुबुद्दीन के बाद इल्तुतमिश सुल्तान बना तब यह स्पष्ट हो गया कि भारत एक अलग राज्य रहेगा। तभी इस नए राज्य की जिसको दिल्ली की सल्तनत कहा जाता है, स्थापना हुई। धीरे धीरे दिल्ली के सुल्तानों ने पूर्व में बंगाल और पश्चिम में सिंध तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया।

परंतु इस सल्तनत पर शासन करना आसान काम नहीं था। सुल्तानों ने दो बड़ी समस्याओं का सामना किया। एक का संबंध तो उन्हीं के साथियों से था और दूसरे का उत्तर भारत के स्थानीय राजाओं से। बहुत से तू रुक सरदार और गुलाम मध्य एशिया से आकर भारत में बस गए थे। सुल्तान अपने राज्य को अपने सरदारों में बांट देता था और उसके बदले में वे सुल्तान को सैनिक देते थे और सल्तनत का शासन चलाने में उसकी सहायता करते थे। जैसा कि उत्तर भारत में पहले से होता आया था, सरदारों को केवल भूमिका लगान दिया जाता था, भूमि पर उनका कोई स्वामित्व नहीं था। इस प्रकार सुल्तान समझता था कि वह सरदारों को अपने अधिकार में रख सकता है। किंतु सरदार उससे प्राप्त अनुदान से सदैव संतुष्ट नहीं रहते थे और सुल्तान के लिए उनको संतुष्ट रखना कठिन हो गया था।

सुल्तान के सामने स्थानीय राजाओं की भी समस्या थी जिनके ऊपर विजय प्राप्त की गई थी। कुछ की भूमि तो उनसे ले ली गई थी और कुछ को अपनी भूमि पर फिर अधिकार दे दिया गया था। जिनको भूमि पर फिर अधिकार दे दिया गया था वह सुल्तान को कर के रूप में कुछ धन देते थे और आवश्यकता पड़ने पर वे सुल्तान को सैनिक सहायता देने के लिए राजी हो जाते थे। इन राजाओं में वे राजपूत सरदार भी थे जिन को पराजित किया गया था। वे अपने सैनिक एकत्र कर लेते थे और सुल्तान की सेनाओं को परेशान करते रहते थे। फिर भी सभी राजपूत सरदार विरोधी नहीं थे। कुछ सल्तनत के साथ मित्रता का संबंध भी बनाए हुए थे।

उत्तर पश्चिमी सीमा पर एक और नई कठिनाई थी। अफगानिस्तान के शासक तो शांति थे किंतु मध्य एशिया के मंगोल चंगेज खान के नेतृत्व में नवीन प्रदेशों को जीते जा रहे थे। सिंधु नदी के किनारे का क्षेत्र मंगोलों के अधिकार में आ गया। प्रायः वे नदी को पार करके पंजाब पर आक्रमण करते थे। कुछ समय के लिए उन्होंने पंजाब पर भी अधिकार कर लिया और सल्तनत के लिए संकट का कारण बन गए।

यह सभी समस्या सुल्तान इल्तुतमिश के सामने मुसीबत बनकर खड़ी थी। जब उसकी मृत्यु हो गई तब उसकी पुत्री रजिया के सामने भी यही समस्या आई। इस्त्री होने के कारण उसके लिए यह समस्या और अधिक कठिन हो गई। किंतु उसने केवल थोड़े समय तक शासन किया। कई साधारण सुल्तानों के बाद शक्तिशाली और दृढ़ निश्चय वाला बलबन दिल्ली का सुल्तान बना।

बलवान को इन समस्याओं को सुलझा ने में इल्तुतमिश से अधिक सफलता मिली। उत्तर में मंगोलों के आक्रमण से उसने सुल्तान की रक्षा की। सल्तनत के अंदर और उसकी सीमाओं पर विद्रोह करने वाले स्थानीय शासकों से उसने कई लड़ाइयां लड़ी। उसके सरदार इस समय बड़े शक्तिशाली हो गए थे और वह सुल्तान के सम्मान का भी ध्यान नहीं रखते थे और उस को धमकी देते रहते थे। बलबन के सामने यह सबसे गंभीर समस्या थी। धीरे धीरे, किंतु दृढ़ता से बलवन ने उनकी शक्ति को नष्ट कर दिया और अंत में सुल्तान ही सबसे अधिक शक्तिशाली बन गया। उसने अपने सरदारों को राज भक्त बनाने में भी सफलता प्राप्त की। उसने सेना के संगठन में तथा शासन प्रणाली में कुछ परिवर्तन किए जिससे कुछ हद तक उसको अपनी समस्याओं को सुलझाने में सफलता मिल गई। वह इस बात पर अधिक बल देता था कि सेना और शासन पर सुल्तान का पूर्ण अधिकार हो। इस प्रकार वह सरदारों के किसी भी विद्रोह को दबा देने के लिए पूर्ण रूप से शक्तिशाली था।

बलवान सुल्तान की निरंकुश शक्ति पर विश्वास करता था। सुल्तान की शक्ति को कोई चुनौती नहीं दे सकता था। उसने एकेमेनी और सासनी वंश के ईरान के महान सम्राटों के विषय में सुना था और अपने को वह उन्हीं के समान बनाना चाहता था। उसने लोगों को अपने सामने सिजदा करने के लिए उत्साहित किया। सिजदा अर्थात सुल्तान को सलाम करने के लिए घुटनों के बल बैठकर, अपने मस्तक को झुका कर पृथ्वी का स्पर्श करना। परंपरावादी मुसलमान इससे भयभीत हुए क्योंकि इस्लाम धर्म के अनुसार सभी मनुष्य समान है इसलिए सिवा ईश्वर के और किसी के सामने सिजदा नहीं करना चाहिए।

खिलजी सुल्तान (1209 ईस्वी से 1320 ईस्वी तक) 

सन 1290 ईसवी में ममलुक वंश के बाद एक नए वंश, खिलजी वंश का शासन आरंभ हुआ। यीशु वंश का महत्वाकांक्षी नवयुवक जलालुद्दीन सन 1296 ईस्वी में सुल्तान बना। वह बलवन से भी अधिक ऊंचे सपने देखता था। वह दूसरा सिकंदर बनकर संसार को विजय करना चाहता था। इसलिए सुल्तान बनते ही उसने संपूर्ण भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयत्न आरंभ किया। इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए उसको तीन कार्य करने थे। पहला सरदारों को अपना स्वामी भक्त बनाना और उनकी शक्ति को अपने कब्जे में रखना, दूसरा दक्षिण और राजस्थान को जीतना और तीसरा मंगोलों को पीछे हटने के लिए विवश करना। यद्यपि इस समय तक मंगोलों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था पर वह संतमत पर आक्रमण करते रहते थे। इन सब कार्यों  को करने के लिए उसको एक विशाल सेना की आवश्यकता थी। वह जब सुल्तान हो गया तब उसने नागरिकों को सोने चांदी के उपहार दिए। साथ ही उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह एक शक्तिशाली शासक है और जो उसके प्रति स्वामी भक्ति का प्रदर्शन न करेगा, उसके साथ वह कठोरता का व्यवहार करेगा।

एक विशाल सेना के लिए परचूर धनराशि की आवश्यकता थी इसलिए अलाउद्दीन को अधिक लगान प्राप्त करने के उपाय सोचने पड़े । गंगा के बीच दोआब के धनी व्यक्तियों पर उसने भूमि कर बढ़ा दिया। इसके अतिरिक्त सरदारों द्वारा वसूल किए जाने वाले लगान पर भी उसने अपनी कठोर दृष्टि रखी और उनको अपने भाग अधिक प्राप्त करने का अवसर नहीं दिया। कोई व्यापार में अधिक लाभ ना प्राप्त कर सके और सभी लोग आसानी से सब वस्तुओं का मूल दे सके इसलिए उसने वस्तुओं के मूल्यों पर नियंत्रण किया। उसका दूसरा महत्वपूर्ण कार्य था लगान और खेती की भूमि के कर का फिर से निर्धारण। पहले उसने अपने राज्य की खेती की भूमि की नाव करवाई और फिर इस नाप के आधार पर लगान निर्धारित किया। विभिन्न व्यक्तियों द्वारा वसूल किए गए लगा उनका वह लेखा रखता था और उसका उस पर पूरा नियंत्रण था।

इस समय मंगोल अपनी कुछ कठिनाइयों में फंस गए थे। इसलिए कुछ समय तक के लिए सल्तनत को उनसे कोई भय नहीं रहा। इसलिए अलाउद्दीन पश्चिम भारत के शासकों की ओर पूरा ध्यान दे सका। उसने गुजरात और मालवा के राज्यों पर चढ़ाई की। रणथंभौर और चित्तौड़ के प्रसिद्ध किलो को जीतकर उसने राजस्थान पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहा।

उसने दक्षिण भारत की ओर भी एक बड़ी सेना मलिक कपूर को सेनापति बनाकर भेजें । इसका उद्देश्य केवल दक्षिण प्रदेश पर विजय प्राप्त करना ही नहीं बल्कि धन दौलत प्राप्त करना भी था। मलिक काफूर ने सभी दिशाओं में लूटमार की और देवगिरि के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वार समुद्र के होयसल तथा दक्षिण के अन्य राज्यों से बहुत अधिक मात्रा में सोना इकट्ठा किया। इन शासकों को अपने राज्य पर इस शर्त पर शासन करने दिया गया कि वह सुल्तान को कर देते रहे। मलिक काफूर ने मदुरई नगर पर भी आक्रमण किया। उत्तर भारत की कोई भी सेना इससे पहले इतने सुदूर दक्षिण तक नहीं पहुंच सकी थी। इस प्रकार कुछ काल तक अलाउद्दीन ने उतने ही बड़े साम्राज्य पर शासन किया जितने पर अशोक ने किया था। फिर भी उसका दक्षिण भारत पर सीधा अधिकार नहीं था।

खिलजी वंश के अंतिम सुल्तान को मार डाला गया और उसके स्थान पर तुगलक वंश के सुल्तान दिल्ली पर शासन करने लगे।

तुगलक वंश (सन 1320 ईस्वी से 1399 ईस्वी तक) 

तुगलक वंश के सुल्तान भी संपूर्ण भारत पर शासन करने का सपना देखते थे। आरंभ में तो उनको सफलता मिली पर शीघ्र ही विरोधी घटनाएं होने लगी। कुछ समय तक उन्होंने दक्षिण पर अपना अधिकार ही नहीं स्थापित किया बल्कि उस पर सीधा शासन भी करते रहे। किंतु जब धीरे-धीरे सल्तनत कमजोर हो गई, तब स्थिति बदल गई। सुदूर दक्षिण क्षेत्र और दूर के प्रांतों के शासकों (गवर्नर) ने सुल्तान राज्य की कमजोरी को समझ लिया और विद्रोह कर दिया और अंत में अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए।

तुगलक वंश के शासकों ने मोहम्मद बिन तुगलक (1325 ईस्वी से 1351 ईस्वी) अधिक प्रसिद्ध था। मोहम्मद तुगलक के शासन काल का ज्ञान प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के अनेक साधन मिलते हैं। इस काल में उत्तर अफ्रीका का एक अरब यात्री इब्नबतूता भारत में आया और उसने मोहम्मद के शासनकाल में यहां के निवासियों के जीवन का विस्तार के साथ वर्णन किया। मोहम्मद ऊंचे आदर्शों पर विश्वास करने वाला शासक था। उसने तर्क पर आधारित सिद्धांतों पर शासन चलाने का प्रयत्न किया। उसके सलाहकारों में एक गणितज्ञ और एक तर्क शास्त्री भी था। उसके बहुत से विचार बड़े ही बुद्धिमता पूर्ण और विवेकपूर्ण थे परंतु उसने उनको सही तरीके से कार्यान्वित नहीं किया, अतः परिणाम में उसको सफलता नहीं मिली।

मोहम्मद भारतवर्ष में ही नहीं मध्य एशिया में भी विजय प्राप्त करना चाहता था इसलिए उसको एक बड़ी सेना की आवश्यकता थी और सेना के खर्च के लिए उसको बहुत सा धन चाहिए था। इसलिए दोआब के किसानों पर उसने कर बढ़ा दिए। सबसे अधिक कठिनाइयां इस कारण बढ़ गई कि उस समय दोआब में अकाल पड़ रहा था। लोगों ने इस बड़े हुए कर को देने से इंकार कर दिया और सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अंत में सुल्तान को अतिरिक्त कर वसूल करने के आदेश को रद्द करना पड़ा।

मोहम्मद अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर देवगिरी ले गया और उसका नाम दौलताबाद रखा। दौलताबाद औरंगाबाद के निकट है। वहां से दक्षिण भारत के प्रशासन पर भी अच्छा नियंत्रण रखा जा सकता था। फिर भी राजधानी का यह परिवर्तन सफल नहीं रहा। यह स्थान उत्तर भारत से दूर था और यहां से उतरी सीमाओं की सुरक्षा नहीं की जा सकती थी । इसलिए मोहम्मद दिल्ली लौटकर आया और दिल्ली एक बार फिर राजधानी बन गई। इस कार्य में दक्षिण के राज्यों को सल्तनत की कमजोरी के चिन्ह दिखलाई पड़े। इसके बाद ही दक्षिण में दो स्वतंत्र राज्यों – बहमनी राज्य और विजय नगर राज का उदय हुआ। अब सुल्तान का दक्षिण भारत के राजनीतिक मामलों में कोई दखल नहीं रहा।

मोहम्मद तुगलक का किया हुआ एक और नया प्रयोग और सफल रहा। यह प्रयोग भी अधिक धन प्राप्त करने का प्रयत्न था। उसने पीतल और तांबे के सांकेतिक सिक्के चलाए जिनको राजकोष में देकर बदले में सोने – चांदी के सिक्के प्राप्त किए जा सकते थे। यदि सुल्तान सॉन्ग के शिक्षकों के बनाने पर अपना नियंत्रण रखता और केवल राज्य के ही द्वारा इन सिक्कों का प्रचलन किया जाता तो इस योजनाओं में सफलता मिलती किंतु बहुत से लोग तांबे और पीतल के सांकेतिक सिक्के बनाने लगे। अतः अर्थव्यवस्था पर सुल्तान का कोई अधिकार नहीं रह गया। फलतः सांकेतिक सिक्कों का प्रचलन सुल्तान को बंद करना पड़ा।

दुर्भाग्य से मोहम्मद को अपनी सभी नीतियां और योजनाओं में सफलता मिली और उससे राज्य की जनता ही नहीं, उलेमा (विद्वानजन) और सरदार भी असंतुष्ट हो गए। उलेमा इस्लाम धर्म के विद्वान व्यक्ति थे और अपने दृष्टिकोण में कट्टर परंपरावादी थे। यदि सुल्तान को जनता, अपने सरदारों और उलेमाओं का पूर्ण सहयोग प्राप्त होता तो उसको उनसे अधिक अच्छी सलाह मिलती और हो सकता है कि अपनी कुछ योजनाओं में उसको सफलता भी मिलती।

मोहम्मद के बाद उसका चचेरा भाई फिरोज शाह (1351 ईस्वी से 1388 ईस्वी तक) गद्दी पर बैठा । फिरोज ने इस बात को अच्छी तरह से समझ लिया कि मोहम्मद की असफलता का एक कारण यह भी था कि उसे सरदारों और उलेमाओं का सहयोग नहीं मिला। अतः फिरोज ने उनके साथ समझौता कर लिया और उनको लगा उनका अनुदान देकर संतुष्ट रखा। वह सरदारों के साथ व्यवहार करने में उधार था। उसने प्रशासन की कुछ नीतियों को परंपरावादी उलेमाओं द्वारा प्रभावित होने दिया। वह केवल उन पर ही असहिष्णु नहीं था जो मुसलमान न थे बल्कि उन मुसलमानों पर भी असहिष्णु जो परंपरावादी नहीं थे। इस प्रकार फिरोज ने दरबार के शक्तिशाली समुदायों के साथ अपने संबंध अच्छे बना लिए पर इसके साथ ही सुल्तान की शक्ति भी कम हो गई।

इस बीच में कुछ प्रांतों (आधुनिक बिहार और बंगाल) के शासकों ने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। सुल्तान ने विद्रोह को दबाने का प्रयत्न किया पर उसको अधिक सफलता नहीं मिली।

सुल्तान को अपनी प्रजा की भलाई का बड़ा ध्यान था। उसने सिंचाई की योजनाएं बनाकर नहरों और इस प्रकार अपने राज्य के कुछ क्षेत्रों की उन्नति की। यमुना नहर इन्हीं नहरों में से एक है। उसने फिरोजपुर, फिरोजाबाद और हिसार – फिरोजा आदि नए नगर बसाये तथा शिक्षा संस्थाओं और अस्पतालों की संख्या में वृद्धि की। फिरोज को भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति में भी रुचि थी। उसके आदेश से संस्कृत की अनेक पुस्तकों का चीन में धर्म और दर्शन की भी कुछ पुस्तकें थी, अरबी और फारसी में अनुवाद किया गया। उसने अशोक के 2 स्तंभों को दिल्ली मंगवाया और उनमें से एक को अपने राजमहल की छत पर लगवाया।

फिरोज की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारीओं में गृह युद्ध आरंभ हुआ। बहुत से प्रांत के गवर्नर स्वतंत्र होकर अपने प्रांत के शासक बन गए। अंत में तुगलक वंश के सुल्तानों का राज्य केवल दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में सीमित रह गया।

दिल्ली सल्तनत का पतन

सन 1398 ईसवी में उत्तर भारत पर फिर मध्य एशिया की सेनाओं का आक्रमण हुआ। तुर्क सरदार तैमूर ने जिसे तैमूर लंग भी कहा जाता है, अपनी विशाल सेना लेकर भारत पर आक्रमण कर दिया। उद्देश्य केवल उत्तर भारत पर आक्रमण करना और लूट का माल लेकर मध्य एशिया लौट जाना था। तैमूर के सैनिकों ने दिल्ली में प्रवेश किया। उन्होंने नगर को लूटा और नगर निवासियों की हत्या की। यह किसी भी नगर के लिए एक बड़ी भयानक घटना थी। जब उन्होंने पर्याप्त मात्रा में धन लूट लिया सबवे समरकंद लौट गए। महमूद गजनबी की भांति तैमूर ने भी भारत से लूटे धन को शानदार इमारत, राजमहल और मस्जिद बनवाकर समरकंद को सजाने में खर्च किया। वह मध्य एशिया के कुछ भागों के विशाल क्षेत्र पर शासन करता था और उसका साम्राज्य ईरान तक फैला हुआ था। उस समय  पश्चिमी एशिया में तुर्क भरे शक्तिशाली थे और उनको अरब और बैजंटाइन दोनों संस्कृतियों उत्तराधिकार में मिली थी।

किंतु भारत की दशा भरी दयनीय और असहाय थी। सन 14 से 13 ईसवी में तुगलक वंश का अंत हो गया और एक स्थानीय शासक ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उसने अपने को सुल्तान घोषित किया और सैयद वंश (1414 इस विषय 1451 ईसवी तक) की स्थापना की। पर इस वंश का शासन काल बहुत थोड़ा रहा। एक दूसरे गवर्नर ने जो लोदी वंश का एक अफगान सरदार था दिल्ली के राज्य पर जबरदस्ती अपना अधिकार कर लिया।

लोदी वंश (1451 ईस्वी से 1526 ईस्वी तक) 

लोदी वंश के शासकों ने सल्तनत को संगठित करने का प्रयत्न किया। विद्रोही गवर्नर की शक्ति को दबाने का प्रयत्न किया गया। जौनपुर के राज्य से बहुत समय तक संघर्ष चलता रहा पर अंत में उसको अधीन कर लिया गया। सिकंदर लोदी (सन 1489 ईसवी से 1517 इसवी तक) ने पश्चिमी बंगाल तक गंगा की घाटी पर अपना अधिकार कर लिया। वह राजधानी को दिल्ली से हटा कर एक नए नगर में ले गया जो बाद में आगरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह अनुभव करता था कि आगरा से वह और भी अच्छी तरह से अपने राज्य का नियंत्रण कर सकेगा। जनता की भलाई के अनेक कार्य करके सिकंदर ने प्रजा को राज भक्त और राज्य को शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न किया। वस्तुओं के मूल्य घटाकर और मूल्यों का नियंत्रण करके उसने राज्य की आर्थिक दशा को सुधारने का प्रयत्न किया।

लोदी सुल्तान अफगान थे। अतः वह अफगान सरदारों की राज भक्ति पर अधिक निर्भर थे। किंतु राजा की शक्तिशाली स्थिति को देखकर यह सरदार अधिक प्रसन्न नहीं थे। उनमें से कुछ नहीं विद्रोह करके अपने असंतोष को व्यक्त किया। प्रमुख अफगान सरदारों ने अंतिम लोदी सुल्तान इब्राहिम का बड़ा विरोध किया। अंत में काबुल के शासक बाबर के साथ मिलकर उन्होंने षड्यंत्र किया और सन 1526 ईसवी में इब्राहिम को पराजित करने में सफल हुए।

सरदार

उपरोक्त प्रायः यह उल्लेख किया गया है की सरदार भरे शक्तिशाली थे। कभी भी प्रशासन की नीति को प्रभावित करते थे, कभी गवर्नर की हैसियत से विद्रोह कर स्वतंत्र शासक बन जाते थे और कभी दिल्ली के सिंहासन पर जबरदस्ती अधिकार भी कर लेते थे। इन सरदारों में से अधिकांश उन तुर्क और अफगान परिवार के थे जो भारत में बस गए थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जो भारत में अपना भाग्य अजमाने विदेशों से आए थे और सुल्तान की सेवा करने लगे थे। प्रांतों में काम करने वाले गवर्नर और सेनापति जैसे अधिकांश अधिकारी ऐसे ही परिवारों के वंशज थे। इन अधिकारियों के रूप में भारतीय मुसलमान और हिंदुओं की भी नियुक्ति अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल के बाद होने लगी।

नकद वेतन देने के स्थान पर गांव या किसी क्षेत्र की भूमि का लगान अधिकारियों को अनुदान में देने की प्रथा को सुल्तानों ने जारी रखा। यह अनुदान पैतृक संपत्ति नहीं था। इसको एक अधिकारी से लेकर दूसरे को दे दिया जाता था। किंतु जैसा कि प्राचीन काल में होता था,जब केंद्रीय शासन कमजोर हो जाता था, तब यह अनुदान पैतृक संपत्ति बन जाता था। किसी भूमि भाग से लगान वसूल कर रख लेने का अनुदान इक्ता प्रणाली कहलाता था। अधिकारी अपने इकट्ठे किए हुए लगा उनसे कुछ भाग अपने वेतन के रूप में ले लेता था। शेष भाग से वह सुल्तान के लिए सैनिकों की व्यवस्था करता था। यदि अब भी लगन बच जाता तो वह सुल्तान को भेज दिया जाता था। अधिकारी से या आशा की जाती थी कि वह अपनी आमदनी और खर्च का पूरा हिसाब रखेगा। अधिकारी पर उस भूमि भाग में कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी थी जिस भूमि भाग का वह लगान वसूल करता था। कभी-कभी भिन्न प्रणाली का प्रयोग किया जाता था। सुल्तान को भेजी जाने वाली धनराशि निश्चित थी और उसको साल के अंत में अदा किया जाता था। इतना होने पर भी सरदारों के पास काफी धन रहता था और वह बड़ी शान शौकत का जीवन व्यतीत करते थे। कभी-कभी उनमें से कुछ हिंदू महाजनों के कर्जदार भी रहते थे।

सुल्तान की शासन प्रणाली

सुल्तान की शासन प्रणाली का मुख्य संबंध भूमिका लगान वसूल करने तथा हिसाब रखने के काम से था। साथ ही वह कानून व्यवस्था को भी बनाए रखता था। कुछ आरक्षित भूमि भी थी और उस पर सीधे सुल्तान का अधिकार था। इस भूमि के लगा उनको सुल्तान अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के लिए खर्च करता था। इस प्रकार की भूमि का लगाओ निश्चित था। उपज का एक तिहाई भाग लगान के रूप में लिया जाता था। यह राज्य का हिस्सा था। गांव और जिले में काम करने वाले स्थानीय अधिकारी इस लगान को वसूल करते थे। यह अधिकारी उसी प्रकार कार्य करते थे जिस प्रकार वे तुर्कों और अफ़गानों के आने से पहले किया करते थे। गांव के शासन के प्रणाली में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ था। कई अधिकारी यह कार्य करते थे जैसे मुकद्दम गांव का वंशानुगत मुखिया होता था। पटवारी स्थानीय कागजात रखता था। मुंसिफ लगान वसूली के समय सहायता करता था और उसके हिसाब की देखभाल करता था।

दरबार में ऐसे भी अधिकारी होते थे जो लगान का हिसाब रखते थे। इन अधिकारियों में वजीर और बख्शी (सेना का अधिकारी) सबसे प्रमुख थे। वजीर और उसके कर्मचारी लगान वसूल हो जाने पर उसके हिसाब की देखभाल करते थे और अनुदान का लेखा रखते थे।

दरबार के अन्य अधिकारी भी थे जो प्रशासन के अन्य कार्यों की देखभाल करते थे। कुछ सेना और उसके ताज – समान उनकी देखभाल करते थे। कुछ सल्तनत और अन्य राज्यों के पारस्परिक संबंधों को बनाए रखने का कार्य करते थे। प्रमुख काजी न्यायाधीश होता था और वह धार्मिक मामलों में भी अपनी राय देता था। वजीर इन सभी अधिकारियों के कार्यों की देखरेख करता था। सुल्तान बहुत अधिक मात्रा में वजीर के कार्य कौशल और उसकी सलाह पर निर्भर था किंतु अंतिम निर्णय सुल्तान ही लेता था।

नए राज्य

जैसे-जैसे सल्तनत की शक्ति कम होती गई इस विशाल देश के विभिन्न भागों में बहुत से नए राज्य बनते गए। इनमें से बहुत से पहले सल्तनत के प्रांत थे और बाद में स्वतंत्र राज्य बन गए।

पश्चिमी भारत में मालवा और गुजरात के राज्य थे। अहमदाबाद नगर की स्थापना करने वाले अहमद शाह ने गुजरात के राज्य को शक्तिशाली बनाया। सुंदर दुर्ग नगर मांडू को बनाने वाले होशंगशाह के शासनकाल में मालवा का राज महत्वपूर्ण हो गया। गुजरात और मालवा लगातार परस्पर युद्ध करते रहे जिससे उनकी शक्ति नष्ट हो गई। राजपूतों के दो राज्य मेवाड़ और मारवाड़ के संबंध में यही बात सत्य भी। यद्यपि दोनों राज्यों में वैवाहिक संबंध थे पर दोनों परस्पर युद्ध करते रहे। यह दूसरा अवसर था जब राजपूत केवल सुल्तान से ही नहीं बल्कि आपस में भी युद्ध करते रहे। मेवाड़ के राणा कुंभा का स्मरण लोग आज तक करते हैं। वह बहुमुखी प्रतिभा वाला व्यक्ति था। शासक होने के साथ-साथ वह अच्छा कवि और संगीतकार भी था। इसी समय के लगभग राजपूतों के जोधपुर और बीकानेर जैसे अन्य बहुत से राज्यों की स्थापना हुई।

इस काल में कश्मीर का राज्य भी महत्वपूर्ण बन गया। जैनुल आबेदीन कश्मीर का बड़ा ही लोकप्रिय शासक था। वह बादशाहा कहलाता था। उसने 15वीं शताब्दी में राज किया। फिरोज तुगलक की भांति उसने संस्कृत और फारसी के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया। आज भी लोग कहते हैं कि वह अपनी प्रजा की भलाई का बड़ा ध्यान रखता था।

पूर्वी भारत में जौनपुर और बंगाल दो प्रमुख राज्य थे। दिल्ली सुल्तान के गवर्नर ने इन राज्यों की स्थापना की। बाद में उन्होंने सल्तनत के विरुद्ध विद्रोह किया। जौनपुर पर सरकी वंश के लोगों का राज्य था। उनकी इच्छा दिल्ली पर अधिकार कर लेने की थी पर वास्तव में वह कभी दिल्ली पर अधिकार न कर सके। बाद में जौनपुर हिंदी साहित्य और शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन गया। बंगाल पर विभिन्न वंश के लोगों का राज्य था। वे प्राइस अफगान और तो रुके थे। उन्होंने थोड़े समय तक शासन किया। फिर अबीसीनिया के एक स्थानीय सरदार ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। यह सभी शासक स्थानीय संस्कृति के संरक्षक थे और बांग्ला भाषा के प्रयोग को प्रोत्साहन देते थे।

दक्षिण और सुदूर दक्षिण में बहमनी और विजयनगर राज्यों की स्थापना हुई। जब मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में सल्तनत का दक्षिण भारत पर अधिकार कमजोर हो गया तब इन राज्यों का उदय हुआ। सुल्तान के अधिकारियों ने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और इन राज्यों के स्थापना की।

मोहम्मद बिन तुगलक के एक अधिकारी हसन गंगू ने बहमनी राज्य की नींव डाली। सन 1347 ईस्वी में हसन ने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह किया और बहमनी राज्य को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया। उसने वह मनसा की उपाधि धारण की और वह इस राजवंश का पहला शासक बना। कृष्णा नदी तक संपूर्ण उत्तरी दक्कन बहमनी राज्य के अंतर्गत था। इस राज्य के दक्षिण में विजयनगर का राज्य था। हरिहर और बुक्का नामक दो भाइयों ने इस राज्य की नींव डाली। उन्होंने भी सल्तनत की घटती हुई शक्ति का अनुभव किया। उन्होंने होयसल के राज्य (आधुनिक मैसूर राज्य) के क्षेत्र को विजय किया और सन 13 से 36 ईसवी में अपने को विजयनगर राज्य का स्वतंत्र शासक घोषित किया। उन्होंने हस्तिनावती (आधुनिक हम्पी) को अपनी राजधानी बनाया। यदि बहमनी और विजयनगर में परस्पर मित्रता का संबंध होता तो वे बड़े शक्तिशाली राज्य बन सकते थे। पर दुर्भाग्य से उनमें सदैव युद्ध होता रहा। इसके अनेक कारण थे। उनमें से एक कारण यह था कि दोनों राज्य रायचूर दोआब को अपने राज्य का हिस्सा मानते थे । यह कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का उपजाऊ भूमि था और दोनों राज्यों के बीच में स्थित था। बहमनी राज्य के गोलकुंडा क्षेत्र में हीरे की खानें थी और विजयनगर के शासक गोलकुंडा को जीतना चाहते थे। यह दूसरा कारण था। फिर एक कारण यह भी था कि दोनों राज्यों के शासक बड़े महत्वाकांक्षी थे और संपूर्ण प्रायद्वीप पर अपना अधिकार करना चाहते थे।

यह युद्ध इन्हीं दो बड़े राज्यों तक सीमित नहीं रहे। प्रायद्वीप के छोटे राज्यों को भी इन दलों में सम्मिलित होकर लड़ना पड़ा। पूर्वी समुद्र तट पर उड़ीसा, आंध्र और मदुरई आदि बहुत से छोटे-छोटे राज्य थे। इन राज्यों पर लगातार बहमनी या विजयनगर के शासक आक्रमण करते रहे। इन राज्यों को बहुत हानि उठानी पड़ी। विजयनगर ने सन 1370 ईस्वी में मदुरई को जीत लिया। पश्चिमी किनारे पर भी विजयनगर क्रियाशील रहा। रेवती द्वीप (आधुनिक गोवा) एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था। उस पर भी अधिकार कर लिया गया। इस बीच बहमनी राज्य अपने उत्तरी पड़ोसी राज्यों – मालवा और गुजरात से युद्ध करने में लगा हुआ था।

इस विशाल देश के यह सभी राज्य बड़े शक्तिशाली बन गए क्योंकि इसके धन प्राप्त करने के दो साधन थे। पहला साधन तो भूमि का लगान था। जौनपुर जैसे उपजाऊ क्षेत्र में इस साधन से बहुत बड़ी मात्रा में धन प्राप्त होता था। दूसरा साधन व्यापार था। गुजरात और बंगाल में बड़ा लाभ होता था। वे पश्चिमी एशिया, पूर्वी अफ्रीका, दक्षिणी – पूर्वी एशिया के देशों और चीन के साथ व्यापार करते थे। बामणी और विजयनगर के राज्य भी इस व्यापार में भाग लेते थे। राजस्थान और मालवा इस विशाल देश के आंतरिक व्यापार से वैभवशाली बन गए थे। व्यापार का माल देश के विभिन्न भागों में ले जाया जाता था। अतः व्यापारी प्राइस इन क्षेत्रों में यात्राएं किया करते थे। राजनीतिक दृष्टि से यह राज इतने शक्तिशाली नहीं थे जितने दिल्ली सल्तनत के, पर इन्हीं क्षेत्रों में आरंभिक संस्कृति का विकास हुआ और उसको परिपक्वता प्राप्त हुई। इन्हीं राज्यों में क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य, वास्तुकला, चित्रकला और नवीन धार्मिक विचारों का विकास हुआ।

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